ओशो साहित्य >> ओशो प्रेम घटा बरसी ओशो प्रेम घटा बरसीस्वामी राजा भारती
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ओशो के प्रेमपूर्ण सान्निध्य में घटे अनुभवजन्य चमत्कारिक संस्मरण....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिला भदोही (वाराणसी) के डोमनपुर शोरवां गांव, डाकखाना परगासपुर वाया नया
बाजार में एक निर्धन परिवार में जन्म हुआ। जीवनयापन करने के लिए बिहार के
जंगलों में नौकरी कर रहा था कि एक दिन श्वेत वस्त्र पहिने एक दिव्य पुरुष
के दर्शन हुए दिन्होंने मुझे तुरन्त बम्बई का आने का निर्देश दिया। मैं
जैसे सम्मोहित होकर बम्बई चला आया। वहाँ बिजली का काम सीखने के साथ
इलेक्ट्रानिक्स का काम सीखा। तबी एक चमत्कार मुझे वुडलैण्ड में भगवान
रजनीश के निकट ले आया। उन्हें देखकर ख्याल आया कि जंगल में वे ही तो प्रकट
होकर मुझे बम्बई बुला रहे थे। पहली भेंट में ही उनसे सन्यास से लेकर उनके
प्रवचनों की रिकार्डिंग का सौभाग्यशाली कार्य पाकर उनके प्रेमपूर्ण
सानिध्य में विकसित हुआ। उनके निकट रहकर मेरे जीवन में चमत्कारों के कई
पुष्प सुवासित हुए। माउण्ट आबू और आनन्द शिला शिविरों में भी भगवान के
प्रवचनों की रिकार्डिंग के कार्य के कारण जाने का सौभाग्य मिला। ओशो के
संकेत पर ही ‘स्वामी ईश्वर समर्पण’ ने ही मुझे आश्रय
दिया और उनका 31, इजरायल मुहल्ला, भगवान भुवन पहिला माला मस्जिद, बंदर रोड
पर स्थिति ध्यान केन्द्र ही मेरा आश्रय स्थल और पता है।
अपने खराब स्वास्थ्य के कारण में भगवान श्री के बम्बई से पूना जाने पर उनके साथ तो न जा सका पर उन्हें मैं शिद्धत से मन प्राणों में हरदम उन्हें निकट महसूस करता रहा और अब भी प्रत्येक क्षण शिद्दत से उन्हें महसूस करता हूँ।
अपने खराब स्वास्थ्य के कारण में भगवान श्री के बम्बई से पूना जाने पर उनके साथ तो न जा सका पर उन्हें मैं शिद्धत से मन प्राणों में हरदम उन्हें निकट महसूस करता रहा और अब भी प्रत्येक क्षण शिद्दत से उन्हें महसूस करता हूँ।
ओशो शब्द जापान में झेन सद्गुरुओं के लिये प्रयुक्त किया जाता था
‘ओ’ का अर्थ है-परम सम्मान प्रेम, अहोभाव और समस्वरता
तथा ‘शो’ का अर्थ है-चेतना का बहुआयामी विस्तार और
समस्त दिशाओं से बरसता हुआ अस्तित्व।
‘ओशो’ शब्द विलियम जेम्स के ‘ओशनिक’ शब्द से लिया गया है-जिसका अभिप्राय है-सागर में विलीन हो जाना।
सुप्रसिद्ध पत्रकार, राजनेता और ओशोप्रेमी श्री बसन्त साठे ने ओशो के संबंध में कहा है कि यह शब्द ओहम् के ‘ओ’ तथा सोहम् के ‘सो’ शब्दों को मिलाकर बना है।
मेरी हृदय वीणा से प्रेम से उमगी और अहोभाव से भरी रागिनी के अनुसार-
जिसमें ओम् ही शोभित हो रहा है
वही ओशो है।
ओऽम का ‘ओ’ तथा शोभित का ‘शो’।
ऐसा ओम् स्वरूप है जो रजनीश
उस ओशो को
जिसमें अभी तक हुये सभी बुद्धि और सद्गुरु समाहित है
यह राजा भारती
शत्-शत् नमन करता है।
उनकी चरणों की वंदना करता है
सारे विरोध समाहित जिसमें
तुम परम रहस्य की खान हो।
गीत तुम्हीं संगीत तुम्हीं
तुम इस युग का जयगान हो।
करुणामय, आनन्द-घन
तुम शीतल मंद बयार हो।
तुम्हीं कृष्ण हो, तुम्हीं बुद्ध हो
तुम सब बुद्धों का सार हो।
अरुप, अछेद और अभेद सभी कुछ
तुम अपरमपारम पार हो।
तुम्हीं ध्यान हो, तुम्हीं प्रेम हो
तुम सद् चित् और आनन्द हो।
तुम्हीं शिवम् हो तुम्हीं सुन्दरम
तुम्हीं सत्य का तेज हो।
तुम ही ओहम् तुम ही सोहम
तुम ही जीवन, जान जहान हो।
‘ओशो’ शब्द विलियम जेम्स के ‘ओशनिक’ शब्द से लिया गया है-जिसका अभिप्राय है-सागर में विलीन हो जाना।
सुप्रसिद्ध पत्रकार, राजनेता और ओशोप्रेमी श्री बसन्त साठे ने ओशो के संबंध में कहा है कि यह शब्द ओहम् के ‘ओ’ तथा सोहम् के ‘सो’ शब्दों को मिलाकर बना है।
मेरी हृदय वीणा से प्रेम से उमगी और अहोभाव से भरी रागिनी के अनुसार-
जिसमें ओम् ही शोभित हो रहा है
वही ओशो है।
ओऽम का ‘ओ’ तथा शोभित का ‘शो’।
ऐसा ओम् स्वरूप है जो रजनीश
उस ओशो को
जिसमें अभी तक हुये सभी बुद्धि और सद्गुरु समाहित है
यह राजा भारती
शत्-शत् नमन करता है।
उनकी चरणों की वंदना करता है
सारे विरोध समाहित जिसमें
तुम परम रहस्य की खान हो।
गीत तुम्हीं संगीत तुम्हीं
तुम इस युग का जयगान हो।
करुणामय, आनन्द-घन
तुम शीतल मंद बयार हो।
तुम्हीं कृष्ण हो, तुम्हीं बुद्ध हो
तुम सब बुद्धों का सार हो।
अरुप, अछेद और अभेद सभी कुछ
तुम अपरमपारम पार हो।
तुम्हीं ध्यान हो, तुम्हीं प्रेम हो
तुम सद् चित् और आनन्द हो।
तुम्हीं शिवम् हो तुम्हीं सुन्दरम
तुम्हीं सत्य का तेज हो।
तुम ही ओहम् तुम ही सोहम
तुम ही जीवन, जान जहान हो।
-राजा भारती
नम्र निवेदन
जहां भी देखता हूं
तुझको ही देखता हूं
तुम कहां नहीं हो
वह जगह खोजता हूं
प्यारे भगवान ! तुम अनन्त
अखण्ड, अपरम्पार अबूझ
और अभेद हो। तुम्हारी करूणा, तुम्हारी लीला अव्याख्य है
तुम्हें मैं क्या जान सकूँगा ?
तुम्हारे सम्बन्ध में कुछ भी कहूं तो कैसे कहूं ? उसे अभिव्यक्त करना, कहना और लिखना बहुत दुष्कर है। तुम्हारे साथ रहते हुए कभी कोई लहर छू गई, कभी कोई झलक दिख गई, कभी कोई महक मिल गई, कभी कोई रागिनी प्राणों में बज उठी, तो मैं अनुप्राणित, आनन्दित हतप्रद और विस्मय विमूढ़ हो गया था।
परंतु जब कुछ ऐसा घटा था तो उस क्षण वो एक चमत्कार जैसा लगा था। पर वह चमत्कार नहीं, प्यारे सदगुरू की वह मुझे विकसित और रुपान्तरित करने की अपार करूणा थी। इन बारह वर्षों में, जो संन्यास के बाद बीते हैं, उसमें मैं तुम्हारे आनन्द सागर में कितने गहरे उतर गया हूं अब तो मुझे भी उसका पता नहीं।
मेरे साथ जो भी चमत्कार हुए, वह भगवान श्री तुम्हारी करूणा थी। प्रभु, वह तुम्हारा असीम प्रेम था। वह मुझ पर दया थी, एक लीला थी तुम्हारी। जो घटनाएं हुईं, अगर न होतीं, तो शायद मैं तुम्हें खो देता। तुमने मुझे मेरी नासमझी में अपने महान प्रेम और करूणा के कारण मुझे ऐसे चमत्कारों द्वारा बांध दिया। तुमने ही मेरे कौतूहल और जिज्ञासा को गहन अभीप्सा में रुपान्तरित कर दिया। तुम्हारे प्रेम और आकर्षण में जब मैं पागल हो अवाक और निस्तब्ध होकर ठहर गया तो पाता गया बहुत कुछ पाता ही गया और मालामाल हो गया। मैंने वह सब कुछ पाया जो तुम मुझे देना चाहते थे। तुम्हारे वह सब चमत्कार तो मेरे रूक जाने के लिए ही तो हुए थे।
मैंने बहुत पाया। पाता ही जा रहा हूं, वह जिसको कहा नहीं जा सकता। और जो कहा नहीं जा सकता, उस आनन्द को क्या कहूँ ? उस आनन्द को कहूं भी तो, कहने का उपाय नहीं। इसकी अनुभूति जिन्हें है वह मेरे जैसे ही दीवाने या शायद मुझसे कहीं बड़े पागल हैं। पर अधिकतर इसलिए खामोश हैं क्योंकि जो घटा, उसकी अभिव्यक्ति बहुत-बहुत मुश्किल है।
जिन घटनाओं का मैं उल्लेख करने जा रहा हूं वह मात्र इसलिए कि-देखो, भगवान कैसे-कैसे रूप से अपने लोगों को अपने पास बुलाने का उपक्रम करते हैं ? किन-किन तरीकों से उस महाआनन्द के असीम सागर में हमें डूबने और बहने का उपाय करते हैं ? कैसी-कैसी परिस्थितियां निर्मित कर हमें रूपान्तरित करने की अनुकम्पा करते हैं। उनका एक ही ध्येय या मंशा है, कि हम जागें।
जिन दिनों भगवानश्री वुडलैण्ड में थे मुझे उन सभी से मिलने का सौभाग्य मिला, जो इनके अत्यंत निकट थे। ओशो के स्वप्न को पूरा करने में समर्पित भाव से अनेक कठिनाइयों, आक्षेप और बाधाओं को उन्होंने हंसते-हंसते बिना शिकायत शिकवे के झेला है। यह संस्मरण अनकहे ही रह जाते यदि स्वामी ज्ञानभेद ऐसा बार-बार आग्रह और अनुरोध नहीं करते। यह सब कुछ सदगुरु ओशो का ही खेल है, जिन्होंने स्वामी ज्ञानभेद को ऐसी प्रेरणा दी और उन्होंने ही पुस्तक का जो प्रस्तुत नाम सुझाया, उसी के अनुसार मैंने भी अपनी स्मृति कोष को टटोल कर यह संस्मरण लिखे।
चाहे भगवानश्री करुणा करें, सद्बबुद्धि और प्रेरणा दें और चाहे वह ध्यान या प्रेम की वर्षा करें, उनका सदा एक ही लक्ष्य रहता है
कि हम कैसे भी जागें
बस जाग जाएं।
हमारी नींद टूट जाए
नव प्रभात के सूर्य की किरणें हम तक पहुंच जाए।
हमारी मूर्च्छा, हमारा अंधेरा दूर हो और हम खिल जाएं
हमारा जीवन आनंद से भर जाए
हम महक से भर जाएं।
इसके लिए हर कुछ संभव-असंभव उपाय वे करुणावश करते हैं।
मुझ अर्द्धशिक्षित, गंवार और अज्ञानी पर उनका करुणा घन बरसकर उसे तृप्त कर गया। न मेरे पास विद्या थी और न बुद्धि। न मेरे पास धन था और न सामर्थ्य। फिर भी उन्होंने मुझे अपात्र की झोली प्रेम से भर दी। मैं उनकी महिमा चमत्कारों के द्वारा ही समझ सकता था। उन्होंने अपने निर्बुद्धि भक्त की यह बेतुकी पुकार सुनकर एक-दो बार नहीं कई बार कई चमत्कार दिखाये जिनसे मेरी मूर्च्छा दूर हुई।
वुडलैण्ड्य एपार्टमेन्ट्स में उनका बिजली मिस्त्री बनकर और उनके प्रवचनों के रिकार्डिग का दायित्व संभाल कर उनके सान्निध्य में मुझे रहने का सौभाग्य मिला। उनकी विविध लीलाओं और विभिन्न भाव मुद्राओं का साक्षी बनकर मैंने जो पाया उसका वर्णन संभव नहीं है। उनकी ही करुणा कृपा से टूटी फूटी भाषा में उनके शब्द चित्र प्रस्तुत किए हैं।
मेरे शब्द चित्र अनगढ़े हीरों जैसे थे जिन्हें मैंने ओशो के ही अज्ञात संकेत पर बिना किसी परिचय के ओशो के जीवन वृत्त के कथाकार स्वामी ज्ञानभेद की डाक से भेज दिया।
उन्होंने ही भाषा ठीक कर और तराश कर इस रूप में प्रस्तुत किया है। गुरु भाई होने के नाते उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी व्यर्थ की औपचारिकता लगती है। उसे भी ओशो का चमत्कार जानकर मैं श्रद्धानत हूं।
स्वामी ईश्वर समर्पण, मां गुणा, मां योग तरु, स्वामी कृष्णदत्त सरस्वती सभी का हृदय से कृतज्ञ हूं जिनका प्रेम और अनुग्रह पाकर मैं विकसित हुआ। पूरे अस्तित्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करता हूं
प्रभु की अनुकम्पा अपार है। प्रभु ! मेरे प्रमाण स्वीकार करें।
स्वामी राजा भारती के प्रणाम
तुझको ही देखता हूं
तुम कहां नहीं हो
वह जगह खोजता हूं
प्यारे भगवान ! तुम अनन्त
अखण्ड, अपरम्पार अबूझ
और अभेद हो। तुम्हारी करूणा, तुम्हारी लीला अव्याख्य है
तुम्हें मैं क्या जान सकूँगा ?
तुम्हारे सम्बन्ध में कुछ भी कहूं तो कैसे कहूं ? उसे अभिव्यक्त करना, कहना और लिखना बहुत दुष्कर है। तुम्हारे साथ रहते हुए कभी कोई लहर छू गई, कभी कोई झलक दिख गई, कभी कोई महक मिल गई, कभी कोई रागिनी प्राणों में बज उठी, तो मैं अनुप्राणित, आनन्दित हतप्रद और विस्मय विमूढ़ हो गया था।
परंतु जब कुछ ऐसा घटा था तो उस क्षण वो एक चमत्कार जैसा लगा था। पर वह चमत्कार नहीं, प्यारे सदगुरू की वह मुझे विकसित और रुपान्तरित करने की अपार करूणा थी। इन बारह वर्षों में, जो संन्यास के बाद बीते हैं, उसमें मैं तुम्हारे आनन्द सागर में कितने गहरे उतर गया हूं अब तो मुझे भी उसका पता नहीं।
मेरे साथ जो भी चमत्कार हुए, वह भगवान श्री तुम्हारी करूणा थी। प्रभु, वह तुम्हारा असीम प्रेम था। वह मुझ पर दया थी, एक लीला थी तुम्हारी। जो घटनाएं हुईं, अगर न होतीं, तो शायद मैं तुम्हें खो देता। तुमने मुझे मेरी नासमझी में अपने महान प्रेम और करूणा के कारण मुझे ऐसे चमत्कारों द्वारा बांध दिया। तुमने ही मेरे कौतूहल और जिज्ञासा को गहन अभीप्सा में रुपान्तरित कर दिया। तुम्हारे प्रेम और आकर्षण में जब मैं पागल हो अवाक और निस्तब्ध होकर ठहर गया तो पाता गया बहुत कुछ पाता ही गया और मालामाल हो गया। मैंने वह सब कुछ पाया जो तुम मुझे देना चाहते थे। तुम्हारे वह सब चमत्कार तो मेरे रूक जाने के लिए ही तो हुए थे।
मैंने बहुत पाया। पाता ही जा रहा हूं, वह जिसको कहा नहीं जा सकता। और जो कहा नहीं जा सकता, उस आनन्द को क्या कहूँ ? उस आनन्द को कहूं भी तो, कहने का उपाय नहीं। इसकी अनुभूति जिन्हें है वह मेरे जैसे ही दीवाने या शायद मुझसे कहीं बड़े पागल हैं। पर अधिकतर इसलिए खामोश हैं क्योंकि जो घटा, उसकी अभिव्यक्ति बहुत-बहुत मुश्किल है।
जिन घटनाओं का मैं उल्लेख करने जा रहा हूं वह मात्र इसलिए कि-देखो, भगवान कैसे-कैसे रूप से अपने लोगों को अपने पास बुलाने का उपक्रम करते हैं ? किन-किन तरीकों से उस महाआनन्द के असीम सागर में हमें डूबने और बहने का उपाय करते हैं ? कैसी-कैसी परिस्थितियां निर्मित कर हमें रूपान्तरित करने की अनुकम्पा करते हैं। उनका एक ही ध्येय या मंशा है, कि हम जागें।
जिन दिनों भगवानश्री वुडलैण्ड में थे मुझे उन सभी से मिलने का सौभाग्य मिला, जो इनके अत्यंत निकट थे। ओशो के स्वप्न को पूरा करने में समर्पित भाव से अनेक कठिनाइयों, आक्षेप और बाधाओं को उन्होंने हंसते-हंसते बिना शिकायत शिकवे के झेला है। यह संस्मरण अनकहे ही रह जाते यदि स्वामी ज्ञानभेद ऐसा बार-बार आग्रह और अनुरोध नहीं करते। यह सब कुछ सदगुरु ओशो का ही खेल है, जिन्होंने स्वामी ज्ञानभेद को ऐसी प्रेरणा दी और उन्होंने ही पुस्तक का जो प्रस्तुत नाम सुझाया, उसी के अनुसार मैंने भी अपनी स्मृति कोष को टटोल कर यह संस्मरण लिखे।
चाहे भगवानश्री करुणा करें, सद्बबुद्धि और प्रेरणा दें और चाहे वह ध्यान या प्रेम की वर्षा करें, उनका सदा एक ही लक्ष्य रहता है
कि हम कैसे भी जागें
बस जाग जाएं।
हमारी नींद टूट जाए
नव प्रभात के सूर्य की किरणें हम तक पहुंच जाए।
हमारी मूर्च्छा, हमारा अंधेरा दूर हो और हम खिल जाएं
हमारा जीवन आनंद से भर जाए
हम महक से भर जाएं।
इसके लिए हर कुछ संभव-असंभव उपाय वे करुणावश करते हैं।
मुझ अर्द्धशिक्षित, गंवार और अज्ञानी पर उनका करुणा घन बरसकर उसे तृप्त कर गया। न मेरे पास विद्या थी और न बुद्धि। न मेरे पास धन था और न सामर्थ्य। फिर भी उन्होंने मुझे अपात्र की झोली प्रेम से भर दी। मैं उनकी महिमा चमत्कारों के द्वारा ही समझ सकता था। उन्होंने अपने निर्बुद्धि भक्त की यह बेतुकी पुकार सुनकर एक-दो बार नहीं कई बार कई चमत्कार दिखाये जिनसे मेरी मूर्च्छा दूर हुई।
वुडलैण्ड्य एपार्टमेन्ट्स में उनका बिजली मिस्त्री बनकर और उनके प्रवचनों के रिकार्डिग का दायित्व संभाल कर उनके सान्निध्य में मुझे रहने का सौभाग्य मिला। उनकी विविध लीलाओं और विभिन्न भाव मुद्राओं का साक्षी बनकर मैंने जो पाया उसका वर्णन संभव नहीं है। उनकी ही करुणा कृपा से टूटी फूटी भाषा में उनके शब्द चित्र प्रस्तुत किए हैं।
मेरे शब्द चित्र अनगढ़े हीरों जैसे थे जिन्हें मैंने ओशो के ही अज्ञात संकेत पर बिना किसी परिचय के ओशो के जीवन वृत्त के कथाकार स्वामी ज्ञानभेद की डाक से भेज दिया।
उन्होंने ही भाषा ठीक कर और तराश कर इस रूप में प्रस्तुत किया है। गुरु भाई होने के नाते उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी व्यर्थ की औपचारिकता लगती है। उसे भी ओशो का चमत्कार जानकर मैं श्रद्धानत हूं।
स्वामी ईश्वर समर्पण, मां गुणा, मां योग तरु, स्वामी कृष्णदत्त सरस्वती सभी का हृदय से कृतज्ञ हूं जिनका प्रेम और अनुग्रह पाकर मैं विकसित हुआ। पूरे अस्तित्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करता हूं
प्रभु की अनुकम्पा अपार है। प्रभु ! मेरे प्रमाण स्वीकार करें।
स्वामी राजा भारती के प्रणाम
निवेदन
स्वामी राजा भारती
(आर.एन. सिंह)
घर का स्थाई पता
ग्राम डोमनपुर (शेरवां)
डा. परगासपुर वाया नया बाज़ार
जिला भदोही उ.प्र. द्वारा/ओम् ओशो मेडीटेशन सेंटर
31 इजरायल मुहल्ला
भगवान भुवन पहिला माला
मस्जिद बंदर रोड़
मुम्बई-400009
स्वामी राजा भारती
(आर.एन. सिंह)
घर का स्थाई पता
ग्राम डोमनपुर (शेरवां)
डा. परगासपुर वाया नया बाज़ार
जिला भदोही उ.प्र. द्वारा/ओम् ओशो मेडीटेशन सेंटर
31 इजरायल मुहल्ला
भगवान भुवन पहिला माला
मस्जिद बंदर रोड़
मुम्बई-400009
-::भूमिका::-
स्वामी राजा भारती का छः मास पूर्व मैं नाम भी नहीं जानता था। मुम्बई में
जीवनजागृति केन्द्र के कर्णधार और ओशो के बम्बई प्रवास के दौरान उनके
निकटतम सहयोगी और कभी उनके निजी सचिव रहे स्वामी ईश्वर समर्पण जी से अवश्य
मेरा पत्र-व्यवहार चल रहा था। तभी एक दिन अचानक रजिस्टर्ड डाक से मुझे
स्वामी राजा भारती के पत्र के साथ इस पुस्तक की पाण्डुलिपि मिली। स्वामीजी
ने अपने पत्र में लिखा था वह किसी अज्ञात शक्ति से प्रेरित होकर यह
पाण्डुलिपि मेरे पास प्रेषित कर रहे हैं और चूंकि वह अधिक शिक्षित नहीं
हैं, अतः इसमें व्याकरण तथा भाषा की अनेक त्रुटियां होना स्वाभाविक हैं
अतः मैं इन्हें सुधार का अज्ञात से जैसी प्रेरणा मुझे मिले, उसके अनुसार
ही मैं सब कुछ करने को स्वतंत्र हूं।
एक माह यह पाण्डुलिपि मेरे पास यों ही पड़ी रही। एक दिन अकस्मात किसी अज्ञात प्रेरणावश मैं उसके पृष्ठ पलटने लगा। पहले बीच से एक संस्मरण पढ़ा। उसे पढ़ते ही मैं पुलकित, रोमांचित और अमन की दशा न जाने कितनी देर यों ही मौन बैठा रहा। मुझे अनुभव हुआ कि जैसे चारों ओर से अस्तित्व मुझ पर बरस रहा है। मैं आनन्दित समाधि की अवस्था में शायद पांच घंटे बैठा रहा। ओशो के सशरीर अपने निकट होने का मुझे बोध हुआ। यह दशा स्वामीजी का वह संस्करण पढ़ कर हुई जब वह भगवान रजनीश का पानी गर्म करने का गीजर सुधारने वुडलैंड एपार्टमेंट्स गये और बाथरूम से तौलिया लपेटे नंगे बदन भगवान श्रीरजनीश ने निकलकर राजा भारती से अपने शोख और नटखट अंदाज में मुफ्त काम न कर मां लक्ष्मी से गीजर सुधारने का अधिक परिश्रामिक मांगने का गुर समझाया जिससे कम से कम उसका चौथाई तो मिल सके।
एक अर्द्धशिक्षित व्यक्ति बिना किसी अंर्तयात्रा के पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण ही बिहार के जंगलों से बम्बई बुलाया गया। गीता, महावीर वाणी, उपनिषद और लाओत्से के सूत्र जिसकी समझ से बाहर थे, जो चमत्कार देखकर श्रद्धावान हो सकता था उसे भगवान श्री ने अपनी करुणा के चमत्कार दिखाए। ओशो प्रत्येक व्यक्ति के रुपान्तरण के लिए जो उनका भक्त हो विशिष्ट स्थितियां निर्मित करते हैं। जिसका जिस भांति रूपान्तरण सम्भव है वह उस पर उसी विधि का प्रयोग करते हैं। राजा भारती की गुर्दे की पथरी जब सक्रिय ध्यान के प्रयोग से चमत्कारिक रुप से बाहर निकली तो पहली भेंट में ही उन्होंने भगवानश्री से संन्यास ले लिया। पर गरीबी इतनी थी कि संन्साय के वस्त्र बनवाने के लिए उनके पास पैसे न थे। वुडलैंड में कार्य करते हुए उस पर चोरी का इल्जाम लगा। यह उनकी परीक्षा की घड़ी थी। यदि निर्दोष होने का अहंकार होता तो भगवानश्री को छोड़कर चले गये होते। पर अडोल श्रद्धा से राजा भारती डटे ही रहे। मां लक्ष्मी से कहा-मां ! यदि आप समझती हैं मैंने ही पैसे लिए हैं तो धीमे-धीमे कमा कर वह धनराशि आपकी चुका दूंगा।
पूरी पाण्डुलिपि लिखकर मैंने राजा भारती को प्रत्र लिखा कि ओशो ने चमत्कारों की वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक व्याख्या कर लोगों को चमत्कारों में उलझने से रोका है।
उस पत्र के प्रत्युत्तर में राजा भारती ने अपने पत्र में जो कुछ लिखकर भेजा उसका एक पैरा मैं ज्यों का त्यों उद्धृत करना उचित समझता हूं।
‘‘मैं आनंदित हूं-इसलिए कि मेरी भावना से आप जुड़ गये। मैंने एक फक्कड़ मसीहा ओशो का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा है। आपकी मात्र चार पुस्तकें मेडीटेशन सेन्टर में देखीं, उठाईं। आपका नाम पता और चित्र देखा, बस इतना भर और उसी क्षण बह कर मैं आपसे जुड़ गया। फक्कड़ मसीहा पढ़ा नहीं, छुआ भर। सब उतर गया भीतर।’’
आपने पूर्व पत्र में कहा है मुझे-‘चमत्कार की निरन्तर अपेक्षा करते रहने के बाबत’। अब मैं क्या करूं ? शायद मेरे भाग्य की यात्रा चमत्कारों से जुड़ी है। क्या ‘फक्कड़ मसीहा’ का न पढ़ना और छूने भर से सब उतर जाना चमत्कार नहीं हुआ ?...तो जो घट रहा है उसे घटने दे रहा हूं। शायद यही सोपान बने-उस परमशून्य ओशो के चरणों में पहुंचने का और सबको, आपको और उन्हें क्या कहूं, जो ओशो के आनंद सागर में डूब गये। बिना अपेक्षा के भी सब घटता जा रहा है।...
मेरा अपना तो कुछ है नहीं। बहुत कम कक्षा आठ तक पढ़ा हूं। यही कारण है कि भावप्रधान होने से शब्द संग्रह नहीं है मेरे पास। अभिव्यक्ति भी सुघड़ नहीं...जितना ठीक लगे सुधार कर जोड़ घटा दीजिये। मेरा अपना तो कुछ है नहीं। सब ओशो का ही है।
राजा भारती के पत्र से, आप लोग उनकी भाव दशा से परिचित हो सकें, इसलिए उन्हीं की पंक्तियां उद्धृत की मैंने। इस शख्स ने पाण्डुलिपि के साथ न अपना परिचय लिखकर भेजा और न अपना वक्तव्य। उनके पत्रों तथा उनकी पुस्तक की सामग्री से ही जोड़ घटा कर यह कार्य भी अनजाने ही मेरे द्वारा सम्पन्न हो गया।
इस पुस्तक की पाण्डुलिपि को पढ़कर सद्गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण और श्रद्धा घटने पर भक्त के जीवन में क्या कैसी असम्भव घटनाएं घटने लगती हैं, इसका शिद्दत से अहसास हुआ। मछली पेड़ पर चढ़ जाती है। पानी में आग लग जाती है। लंगड़े लोग पर्वत की चोटी पर चढ़ जाते हैं। अंधे देखने लगते हैं। संझा भाषा में यह एक भक्त की अभिव्यक्तियां हैं, जिसका साधारण अर्थ यही है कि ओशो के प्रति समर्पण और सम्पूर्ण श्रद्धा घटने पर उन्हें जो चमत्कारिक अनुभव हुये हैं वह सद्गुरु की करुणा का प्रसाद है। रहस्यमय और अजूबा है।
स्वा. राजा भारती ने पहले 100 पृष्ठों से भी कम का मैटर भेजा था। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि वे स्वामी ईश्वर समर्पण का साक्षात्कार लेकर भेंजे। ईश्वर भाई उसके लिए तैयार नहीं हुए। राजा भारती ने अपनी स्मृति को टटोलते हुए कई संस्मरण लिख भेजे, पर यह उनके व्यक्तित्व की पूरी तस्वीर न होकर खण्ड मात्र है। राजा भारती ने उनसे कोई साक्षात्कार नहीं लिया है। उनके निकट सम्पर्क में आने पर उनके जीवन के कुछ पहलुओं पर यह लेखक के कुछ ‘इम्प्रेशन्स’ है। यह इसलिए बहुत अधिक जीवन्त है और इनसे इस पुस्तक का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। अप्रत्यक्ष रूप से यह सभी संस्मरण सद्गुरु ओशो के ही हैं और अपने आप में अछूते और दुर्लभ हैं। ओशो प्रेमी उन्हें पढ़कर निश्चित ही आनन्दित और विकसित होंगे।
‘‘ओशो प्रेम घटा बरसी’’ एक भक्त के प्राणों की तड़प और भाव भरे उद्गार हैं, जो बुद्धि से नहीं हृदय की दवात में प्रेम की लेखनी को डुबोकर स्वतः उद्भूत हुए है। ओशो पर अभी तक जितनी पुस्तकें और संस्मरण लिखे गये हैं यह उन सभी से अलग हैं। इनकी सुवास और रस आपको आनंदित करने के साथ ओशो में श्रद्धा उत्पन्न कर आपको अहंकार के विष से मुक्त करे, इन मंगलकामनाओं के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं।
स्वामी ईश्वर समर्पण के प्रति भी अहोभाव व्यक्त करता हूं जिनके प्रेम पूर्ण आश्रय में राजा भारती विकसित हुए। उनका ध्यान केन्द्र ही इस हीरे की खान है।
डायमण्ड पॉकेट बुक्स के प्रबन्ध निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार जी का भी मैं कृतज्ञ हूं जिन्होंने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर एक अनाम ओशो भक्त के अनुभवजन्य चमत्कारिक संस्करणों को प्रकाशित करने की जोखिम उठाई। वह पूर्व में भी मेरे अनुरोध पर स्वामी योग प्रीतम और स्वामी प्रेम निशीथ की ओशो से संबंधित सुंदर रचनाएं प्रकाशित कर ओशो प्रेमियों तक पहुँचा चुके हैं।
1.
एक माह यह पाण्डुलिपि मेरे पास यों ही पड़ी रही। एक दिन अकस्मात किसी अज्ञात प्रेरणावश मैं उसके पृष्ठ पलटने लगा। पहले बीच से एक संस्मरण पढ़ा। उसे पढ़ते ही मैं पुलकित, रोमांचित और अमन की दशा न जाने कितनी देर यों ही मौन बैठा रहा। मुझे अनुभव हुआ कि जैसे चारों ओर से अस्तित्व मुझ पर बरस रहा है। मैं आनन्दित समाधि की अवस्था में शायद पांच घंटे बैठा रहा। ओशो के सशरीर अपने निकट होने का मुझे बोध हुआ। यह दशा स्वामीजी का वह संस्करण पढ़ कर हुई जब वह भगवान रजनीश का पानी गर्म करने का गीजर सुधारने वुडलैंड एपार्टमेंट्स गये और बाथरूम से तौलिया लपेटे नंगे बदन भगवान श्रीरजनीश ने निकलकर राजा भारती से अपने शोख और नटखट अंदाज में मुफ्त काम न कर मां लक्ष्मी से गीजर सुधारने का अधिक परिश्रामिक मांगने का गुर समझाया जिससे कम से कम उसका चौथाई तो मिल सके।
एक अर्द्धशिक्षित व्यक्ति बिना किसी अंर्तयात्रा के पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण ही बिहार के जंगलों से बम्बई बुलाया गया। गीता, महावीर वाणी, उपनिषद और लाओत्से के सूत्र जिसकी समझ से बाहर थे, जो चमत्कार देखकर श्रद्धावान हो सकता था उसे भगवान श्री ने अपनी करुणा के चमत्कार दिखाए। ओशो प्रत्येक व्यक्ति के रुपान्तरण के लिए जो उनका भक्त हो विशिष्ट स्थितियां निर्मित करते हैं। जिसका जिस भांति रूपान्तरण सम्भव है वह उस पर उसी विधि का प्रयोग करते हैं। राजा भारती की गुर्दे की पथरी जब सक्रिय ध्यान के प्रयोग से चमत्कारिक रुप से बाहर निकली तो पहली भेंट में ही उन्होंने भगवानश्री से संन्यास ले लिया। पर गरीबी इतनी थी कि संन्साय के वस्त्र बनवाने के लिए उनके पास पैसे न थे। वुडलैंड में कार्य करते हुए उस पर चोरी का इल्जाम लगा। यह उनकी परीक्षा की घड़ी थी। यदि निर्दोष होने का अहंकार होता तो भगवानश्री को छोड़कर चले गये होते। पर अडोल श्रद्धा से राजा भारती डटे ही रहे। मां लक्ष्मी से कहा-मां ! यदि आप समझती हैं मैंने ही पैसे लिए हैं तो धीमे-धीमे कमा कर वह धनराशि आपकी चुका दूंगा।
पूरी पाण्डुलिपि लिखकर मैंने राजा भारती को प्रत्र लिखा कि ओशो ने चमत्कारों की वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक व्याख्या कर लोगों को चमत्कारों में उलझने से रोका है।
उस पत्र के प्रत्युत्तर में राजा भारती ने अपने पत्र में जो कुछ लिखकर भेजा उसका एक पैरा मैं ज्यों का त्यों उद्धृत करना उचित समझता हूं।
‘‘मैं आनंदित हूं-इसलिए कि मेरी भावना से आप जुड़ गये। मैंने एक फक्कड़ मसीहा ओशो का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा है। आपकी मात्र चार पुस्तकें मेडीटेशन सेन्टर में देखीं, उठाईं। आपका नाम पता और चित्र देखा, बस इतना भर और उसी क्षण बह कर मैं आपसे जुड़ गया। फक्कड़ मसीहा पढ़ा नहीं, छुआ भर। सब उतर गया भीतर।’’
आपने पूर्व पत्र में कहा है मुझे-‘चमत्कार की निरन्तर अपेक्षा करते रहने के बाबत’। अब मैं क्या करूं ? शायद मेरे भाग्य की यात्रा चमत्कारों से जुड़ी है। क्या ‘फक्कड़ मसीहा’ का न पढ़ना और छूने भर से सब उतर जाना चमत्कार नहीं हुआ ?...तो जो घट रहा है उसे घटने दे रहा हूं। शायद यही सोपान बने-उस परमशून्य ओशो के चरणों में पहुंचने का और सबको, आपको और उन्हें क्या कहूं, जो ओशो के आनंद सागर में डूब गये। बिना अपेक्षा के भी सब घटता जा रहा है।...
मेरा अपना तो कुछ है नहीं। बहुत कम कक्षा आठ तक पढ़ा हूं। यही कारण है कि भावप्रधान होने से शब्द संग्रह नहीं है मेरे पास। अभिव्यक्ति भी सुघड़ नहीं...जितना ठीक लगे सुधार कर जोड़ घटा दीजिये। मेरा अपना तो कुछ है नहीं। सब ओशो का ही है।
राजा भारती के पत्र से, आप लोग उनकी भाव दशा से परिचित हो सकें, इसलिए उन्हीं की पंक्तियां उद्धृत की मैंने। इस शख्स ने पाण्डुलिपि के साथ न अपना परिचय लिखकर भेजा और न अपना वक्तव्य। उनके पत्रों तथा उनकी पुस्तक की सामग्री से ही जोड़ घटा कर यह कार्य भी अनजाने ही मेरे द्वारा सम्पन्न हो गया।
इस पुस्तक की पाण्डुलिपि को पढ़कर सद्गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण और श्रद्धा घटने पर भक्त के जीवन में क्या कैसी असम्भव घटनाएं घटने लगती हैं, इसका शिद्दत से अहसास हुआ। मछली पेड़ पर चढ़ जाती है। पानी में आग लग जाती है। लंगड़े लोग पर्वत की चोटी पर चढ़ जाते हैं। अंधे देखने लगते हैं। संझा भाषा में यह एक भक्त की अभिव्यक्तियां हैं, जिसका साधारण अर्थ यही है कि ओशो के प्रति समर्पण और सम्पूर्ण श्रद्धा घटने पर उन्हें जो चमत्कारिक अनुभव हुये हैं वह सद्गुरु की करुणा का प्रसाद है। रहस्यमय और अजूबा है।
स्वा. राजा भारती ने पहले 100 पृष्ठों से भी कम का मैटर भेजा था। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि वे स्वामी ईश्वर समर्पण का साक्षात्कार लेकर भेंजे। ईश्वर भाई उसके लिए तैयार नहीं हुए। राजा भारती ने अपनी स्मृति को टटोलते हुए कई संस्मरण लिख भेजे, पर यह उनके व्यक्तित्व की पूरी तस्वीर न होकर खण्ड मात्र है। राजा भारती ने उनसे कोई साक्षात्कार नहीं लिया है। उनके निकट सम्पर्क में आने पर उनके जीवन के कुछ पहलुओं पर यह लेखक के कुछ ‘इम्प्रेशन्स’ है। यह इसलिए बहुत अधिक जीवन्त है और इनसे इस पुस्तक का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। अप्रत्यक्ष रूप से यह सभी संस्मरण सद्गुरु ओशो के ही हैं और अपने आप में अछूते और दुर्लभ हैं। ओशो प्रेमी उन्हें पढ़कर निश्चित ही आनन्दित और विकसित होंगे।
‘‘ओशो प्रेम घटा बरसी’’ एक भक्त के प्राणों की तड़प और भाव भरे उद्गार हैं, जो बुद्धि से नहीं हृदय की दवात में प्रेम की लेखनी को डुबोकर स्वतः उद्भूत हुए है। ओशो पर अभी तक जितनी पुस्तकें और संस्मरण लिखे गये हैं यह उन सभी से अलग हैं। इनकी सुवास और रस आपको आनंदित करने के साथ ओशो में श्रद्धा उत्पन्न कर आपको अहंकार के विष से मुक्त करे, इन मंगलकामनाओं के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं।
स्वामी ईश्वर समर्पण के प्रति भी अहोभाव व्यक्त करता हूं जिनके प्रेम पूर्ण आश्रय में राजा भारती विकसित हुए। उनका ध्यान केन्द्र ही इस हीरे की खान है।
डायमण्ड पॉकेट बुक्स के प्रबन्ध निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार जी का भी मैं कृतज्ञ हूं जिन्होंने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर एक अनाम ओशो भक्त के अनुभवजन्य चमत्कारिक संस्करणों को प्रकाशित करने की जोखिम उठाई। वह पूर्व में भी मेरे अनुरोध पर स्वामी योग प्रीतम और स्वामी प्रेम निशीथ की ओशो से संबंधित सुंदर रचनाएं प्रकाशित कर ओशो प्रेमियों तक पहुँचा चुके हैं।
विनीत्
ज्ञानभेद
18 एम.आई,जी.बर्रा-6 कानपुर
फोन न.285030
ज्ञानभेद
18 एम.आई,जी.बर्रा-6 कानपुर
फोन न.285030
1.
सक्रिय ध्यान से पथरी निकली
सितम्बर 1971 के अन्तिम सप्ताह की यह घटना है। इस घटना या चमत्कार से जो
सक्रिय ध्यान के द्वारा हुआ, उसके कुछ दिनों के बाद; भगवान श्री के दर्शन
हुये। उसके पहले न तो मैं भगवान श्री के संबंध में जानता था और न ही कभी
मुझ तक उनकी चर्चा ही पहुंची थी।
मैं बम्बई से 10वीं कक्षा की शिक्षा अधूरी छोड़ गांव चला गया था और 8 साल बाद पुनः 1990 में बम्बई आया। आने का कारण जीविकोपार्जन था। बम्बई आते ही मेरी मूत्र थैली (किडनी) में कुछ दिन पूर्व जो दर्द की शिकायत प्रारम्भ हो गई थी अब भयानक रूप से उग्र हो उठी। कुछ इधर-उधर की दवा के बाद बाम्बे हॉस्पिटल की शरण में गया, जहां काफी इलाज के बाद डॉक्टरों ने तय किया कि ऑपरेशन ही अब इसका एकमात्र उपाय है और यह जरूरी है क्योंकि अत्याधिक मात्रा में ‘‘पथरी’’ का जमाव हो चुका है। मैं इस ऑपरेशन के लिए अपने को तैयार नहीं कर सका। घबराया भी।
तभी अचानक एक दिन मुझे बचपन से जानने वाले श्री कृष्णदत्त दीक्षित (स्वामी कृष्णदत्त सरस्वती) तारदेव बम्बई में मिल गए। वो मुझे पहचानते थे। उन्होंने मेरा समाचार पूछा।
मैंने उन्हें ‘पथरी’ के बाबत विस्तार से बताया। उन्होंने मेरी हालत देखते हुए मुझे काफी सांत्वना दी और फिर भगवानश्री के ध्यान प्रयोगों और स्वयं उनके बारे में भी बहुत कुछ बताया। उनके बार-बार भगवान-भगवान कहने से मेरी समझ में कुछ नहीं पड़ रहा था। शायद यह भांप कर उन्होंने ‘‘रजनीश’’ नाम लिया और बोले ‘‘हम उन्हें ही भगवान कहते हैं और जब मैं ‘भगवान’ कहूं तो समझना कि मैं भगवान ‘रजनीश जी’ के बारे में ही कह रहा हूं।’’
यहां यह उल्लेख कर दूं कि-जिस समय रजनीश को लोग ‘‘आचार्य’’ या ‘‘आचार्यश्री’’ कहते थे, उस समय श्रीकृष्ण दत्त या उनके छोटे भाई ब्रह्मदत्त दीक्षित (स्वामी आनंद ब्रह्मदत्त) उन्हें भगवान कहते थे। जहां तक मेरा ख्याल है कि उनका ही परिवार एक ऐसा परिवार था जो सर्वप्रथम भगवानश्री की पहनी गई चप्पल जिसे वे लोग ‘‘भगवान की पादुका’’ कहते हैं उसका विधिवत काष्ठ मन्दिर में रखकर भक्ति भाव और अत्यंत श्रद्धा से प्रातः पूजा करता था और नित्य सक्रिय ध्यान करता था। आज स्वामी कृष्णदत्त सरस्वती जी अपने शरीर में नहीं है फिर भी उनके यहां वह ‘‘श्रीपादुका’’ आज भी शोभित और पूजित है।
उन्होंने मुझे सक्रिय-ध्यान के बारे में काफी कुछ बताया और कहा कि ‘‘राजा-तुम अपने को और रोग को उन्हें समर्पित कर ध्यान करो। बस तुम निरोग हो जावोगे’’। खैर उनके काफी कुछ समझाने बताने और एक दिन उनके द्वारा अन्य लोगों को ध्यान कराते हुए देखने के बाद, मैं बेमन से दूसरे दिन तैयार हो गया कि ध्यान करूंगा।
जब उनके यहां दूसरे दिन ध्यान करने गया तो ब्रह्मदत्त जी हमें ध्यान की प्रक्रिया समझाने के बाद ध्यान करने में पूरा सहयोग देने लगे। वह सुझाव दे रहे थे-
‘‘श्वांस लो। श्वांस लो।
गहरी और गहरी। सिर्फ
श्वांस ही श्वांस रह जाये।’’
और पहले तो मुझे काफी प्रयास करना पड़ा किन्तु थोड़ी देर में ही लगा कि जैसे सब कुछ अपने आप हो रहा है। मैं मात्र आदेश भर सुन रहा था और वह निरन्तर निर्देश दे रहे थे-श्वांस ही श्वांस-आप श्वांस ही हो गए हैं। उस समय कुछ पता ही नहीं चला कि क्या कर रहा हूं, क्या हो रहा है और कैसे हो रहा है। जब मैं होश में आया तो देखा कि घर का काफी सामान तितर-बितर हो चुका है। मुझे बताया गया कि तुमने बहुत गहरा ध्यान किया है और रेचन करते समय बहुत उछले कूदे हो। चलते समय ब्रह्मदत्त जी ने मुझसे कहा-अब तुम बिना बोले चुप-चाप यहां से जाना और एक घण्टा पूरी तरह मौन रहना और कल फिर ध्यान करने आ जाना।
दूसरे दिन जब मैं सोकर उठा, तब मुझे पूरे बदन में विशेष रुप से पेडू में काफी दर्द हुआ और दर्द किडनी के नीचे खिसकता हुआ लगा। कुछ देर बाद पेशाब नली में जोर की पीड़ा और सुई चुभने जैसा दर्द हुआ। पेशाब, कोशिश करने पर भी और उसका वेग महसूस होने पर भी नहीं हो रही थी। अंत में काफी जोर लगाने पर और दर्द के बाद ही पेशाब हुआ। साथ ही मटर के बराबर एक कठोर वस्तु भी बाहर आई और इसी तरह के अन्य बहुत से टुकड़े निकले। मैं नहानी में था अतः मैंने जिज्ञासावश सभी पत्थरों को इकट्ठा कर लिया। दर्द अब बिल्कुल समाप्त हो चुका था। मैं काफी मात्रा में पानी पीता रहा और जो कुछ अन्य कण थे, वे भी निकल गये।
संध्या को पुनः मैं उनके यहां ध्यान में गया, और फिर तो ध्यान नियमित करने लगा। बाद में उन ‘‘पथरी’’ के टुकड़ों को बम्बई अस्पताल के डॉक्टर को जो मेरा उपचार कर रहे थे, दिखाया। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘यह किस दवा से निकले हैं ? मैंने उन्हें ‘‘सक्रिय-ध्यान’’ की दवा का नाम बताया पर उनको विश्वास नहीं हुआ तो नहीं हुआ।
मैंने स्वामी कृष्णदत्तजी से प्रार्थना की कि मुझे भगवान के पास ले चलो तो उन्होंने बताया कि भगवान आबू गए हैं। बस, आते ही मैं तुझे उनके पास ले जाऊंगा।
और भगवानश्री की सरलता और भोलापन तो देखिये जब भगवान आबू शिविर से लौटे और उनके चरण स्पर्श कर मैंने यह चमत्कार उन्हें बताया तो मुस्कराकर बोले-‘‘तूने ध्यान समग्रता, पूरी ऊर्जा और अटूट श्रद्धा से किया, बस इसलिए असम्भव सम्भव बन गया। गहराई से सांस का प्रयोग और रेचन की प्रक्रिया द्वारा अंदर के सभी रुके मनोवेग ही नहीं शरीर के अवरोध भी निकल गये। इसमें चमत्कार कहां ?’’
मैं बम्बई से 10वीं कक्षा की शिक्षा अधूरी छोड़ गांव चला गया था और 8 साल बाद पुनः 1990 में बम्बई आया। आने का कारण जीविकोपार्जन था। बम्बई आते ही मेरी मूत्र थैली (किडनी) में कुछ दिन पूर्व जो दर्द की शिकायत प्रारम्भ हो गई थी अब भयानक रूप से उग्र हो उठी। कुछ इधर-उधर की दवा के बाद बाम्बे हॉस्पिटल की शरण में गया, जहां काफी इलाज के बाद डॉक्टरों ने तय किया कि ऑपरेशन ही अब इसका एकमात्र उपाय है और यह जरूरी है क्योंकि अत्याधिक मात्रा में ‘‘पथरी’’ का जमाव हो चुका है। मैं इस ऑपरेशन के लिए अपने को तैयार नहीं कर सका। घबराया भी।
तभी अचानक एक दिन मुझे बचपन से जानने वाले श्री कृष्णदत्त दीक्षित (स्वामी कृष्णदत्त सरस्वती) तारदेव बम्बई में मिल गए। वो मुझे पहचानते थे। उन्होंने मेरा समाचार पूछा।
मैंने उन्हें ‘पथरी’ के बाबत विस्तार से बताया। उन्होंने मेरी हालत देखते हुए मुझे काफी सांत्वना दी और फिर भगवानश्री के ध्यान प्रयोगों और स्वयं उनके बारे में भी बहुत कुछ बताया। उनके बार-बार भगवान-भगवान कहने से मेरी समझ में कुछ नहीं पड़ रहा था। शायद यह भांप कर उन्होंने ‘‘रजनीश’’ नाम लिया और बोले ‘‘हम उन्हें ही भगवान कहते हैं और जब मैं ‘भगवान’ कहूं तो समझना कि मैं भगवान ‘रजनीश जी’ के बारे में ही कह रहा हूं।’’
यहां यह उल्लेख कर दूं कि-जिस समय रजनीश को लोग ‘‘आचार्य’’ या ‘‘आचार्यश्री’’ कहते थे, उस समय श्रीकृष्ण दत्त या उनके छोटे भाई ब्रह्मदत्त दीक्षित (स्वामी आनंद ब्रह्मदत्त) उन्हें भगवान कहते थे। जहां तक मेरा ख्याल है कि उनका ही परिवार एक ऐसा परिवार था जो सर्वप्रथम भगवानश्री की पहनी गई चप्पल जिसे वे लोग ‘‘भगवान की पादुका’’ कहते हैं उसका विधिवत काष्ठ मन्दिर में रखकर भक्ति भाव और अत्यंत श्रद्धा से प्रातः पूजा करता था और नित्य सक्रिय ध्यान करता था। आज स्वामी कृष्णदत्त सरस्वती जी अपने शरीर में नहीं है फिर भी उनके यहां वह ‘‘श्रीपादुका’’ आज भी शोभित और पूजित है।
उन्होंने मुझे सक्रिय-ध्यान के बारे में काफी कुछ बताया और कहा कि ‘‘राजा-तुम अपने को और रोग को उन्हें समर्पित कर ध्यान करो। बस तुम निरोग हो जावोगे’’। खैर उनके काफी कुछ समझाने बताने और एक दिन उनके द्वारा अन्य लोगों को ध्यान कराते हुए देखने के बाद, मैं बेमन से दूसरे दिन तैयार हो गया कि ध्यान करूंगा।
जब उनके यहां दूसरे दिन ध्यान करने गया तो ब्रह्मदत्त जी हमें ध्यान की प्रक्रिया समझाने के बाद ध्यान करने में पूरा सहयोग देने लगे। वह सुझाव दे रहे थे-
‘‘श्वांस लो। श्वांस लो।
गहरी और गहरी। सिर्फ
श्वांस ही श्वांस रह जाये।’’
और पहले तो मुझे काफी प्रयास करना पड़ा किन्तु थोड़ी देर में ही लगा कि जैसे सब कुछ अपने आप हो रहा है। मैं मात्र आदेश भर सुन रहा था और वह निरन्तर निर्देश दे रहे थे-श्वांस ही श्वांस-आप श्वांस ही हो गए हैं। उस समय कुछ पता ही नहीं चला कि क्या कर रहा हूं, क्या हो रहा है और कैसे हो रहा है। जब मैं होश में आया तो देखा कि घर का काफी सामान तितर-बितर हो चुका है। मुझे बताया गया कि तुमने बहुत गहरा ध्यान किया है और रेचन करते समय बहुत उछले कूदे हो। चलते समय ब्रह्मदत्त जी ने मुझसे कहा-अब तुम बिना बोले चुप-चाप यहां से जाना और एक घण्टा पूरी तरह मौन रहना और कल फिर ध्यान करने आ जाना।
दूसरे दिन जब मैं सोकर उठा, तब मुझे पूरे बदन में विशेष रुप से पेडू में काफी दर्द हुआ और दर्द किडनी के नीचे खिसकता हुआ लगा। कुछ देर बाद पेशाब नली में जोर की पीड़ा और सुई चुभने जैसा दर्द हुआ। पेशाब, कोशिश करने पर भी और उसका वेग महसूस होने पर भी नहीं हो रही थी। अंत में काफी जोर लगाने पर और दर्द के बाद ही पेशाब हुआ। साथ ही मटर के बराबर एक कठोर वस्तु भी बाहर आई और इसी तरह के अन्य बहुत से टुकड़े निकले। मैं नहानी में था अतः मैंने जिज्ञासावश सभी पत्थरों को इकट्ठा कर लिया। दर्द अब बिल्कुल समाप्त हो चुका था। मैं काफी मात्रा में पानी पीता रहा और जो कुछ अन्य कण थे, वे भी निकल गये।
संध्या को पुनः मैं उनके यहां ध्यान में गया, और फिर तो ध्यान नियमित करने लगा। बाद में उन ‘‘पथरी’’ के टुकड़ों को बम्बई अस्पताल के डॉक्टर को जो मेरा उपचार कर रहे थे, दिखाया। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘यह किस दवा से निकले हैं ? मैंने उन्हें ‘‘सक्रिय-ध्यान’’ की दवा का नाम बताया पर उनको विश्वास नहीं हुआ तो नहीं हुआ।
मैंने स्वामी कृष्णदत्तजी से प्रार्थना की कि मुझे भगवान के पास ले चलो तो उन्होंने बताया कि भगवान आबू गए हैं। बस, आते ही मैं तुझे उनके पास ले जाऊंगा।
और भगवानश्री की सरलता और भोलापन तो देखिये जब भगवान आबू शिविर से लौटे और उनके चरण स्पर्श कर मैंने यह चमत्कार उन्हें बताया तो मुस्कराकर बोले-‘‘तूने ध्यान समग्रता, पूरी ऊर्जा और अटूट श्रद्धा से किया, बस इसलिए असम्भव सम्भव बन गया। गहराई से सांस का प्रयोग और रेचन की प्रक्रिया द्वारा अंदर के सभी रुके मनोवेग ही नहीं शरीर के अवरोध भी निकल गये। इसमें चमत्कार कहां ?’’
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लोगों की राय
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